Tuesday, May 18, 2010

जाति आधारित जनगणना से 1930 जैसा अलगावादी महौल क़ायम होगा

भारत में वर्ष 2011 की जनगणना की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। प्रक्रिया प्रारम्भ होने के पूर्व ही कुछ जनाधार विहीन गिरोहनुमा राजनैतिक दलों और उनके सरदारों ने जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी है। मानो उनका सब कुछ लुट-पिट रहा हो। जाति आधारित जनगणना के समर्थकों की राय में इससे पिछड़ तथा अतिपिछड़ी जातियों की पुख़्ता जानकारी मिलने के साथ ही इन जातियों के विकास के लिए योजनायें बनाने में सहूलियतें मिलेंगी। इसके अलावा इन सरदारों और गिरोहों के पास जाति आधारित जनगणना के पक्ष में शायद कोई तर्क नहीं हैं। अगर इस तरह के गैर ज़िम्मेदार राजनैतिक दलों और उनके सरदारों के तर्कों को मानते हुए जनगणना कराई जाती है तो देश में 1930 के दशक जैसी जातिवादी, साम्प्रदायिक तथा अलगावादी महौल बनना तय है। गौरतलब हो कि ब्रिटिश हुकूमत में 1931 में जाति एवं सम्प्रदाय आधारित जनगणना करायी थी। इस जनगणना के बाद ही देश में साम्प्रदायिक एवं जातीय महौल बनना शुरू हुआ और अलगावाद को बढ़ावा मिलने लगा। इसी जनगणना के साथ ही अलग पाकिस्तान की मांग शुरू हुई और आज़ादी  के साथ ही इसकी दुखद परिणति भी हुई।
सपा, बसपा और राजद जैसे दलों और मुलायम, मायावती तथा लालू  जैसे दिशाहीन, दृष्टिहीन व दायित्व विहीन नेता 1930 के दशक जैसे हालात देश में पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल ब्रिटिश हुकूमत आज़ादी के आन्दोलन की धार को कुन्द करने तथा जातीय एव ंसाम्प्रदायिक अलगाव को पुख़्ता करने की नीयत से जाति आधारित जनगणना करायी थी। आज़ादी के बाद अब तक 6 बार जनगणना हो चुकी है। लेकिन जातीय आधार पर जनगणना की मांग कभी नहीं हुई। मण्डल आयोग की सिफारिशों के तहत जब पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई तो 1931 की जनगणना को ही आधार बनाया गया। मुलायम लालू और मायावती जैसे नेता और उनके दल मण्डल की अंधड़ में ही पल कर सत्ता का स्वाद चखे हैं। चूंकि अब दो दशकों बाद जब मण्डल की काली लौ बुझने के पहले टिमटिमा रही है, तो यही दल और नेता काली लौ को बचाने के लिए गीधड़ गुहार कर रहे हैं।
इन हालातों में देश के बुद्धजीवियों, साहित्यकारों, धर्मगुरूओं तथा अन्य ज़िम्मेदार लोगों को सामाजिक समरसता के लिए जाति आधारित जनगणना के विरोध में माहौल क़ायम करने की ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए। फिलवक़्त इस तरह का प्रयास कहीं दिख नहीं रहा है। देश का जन-गण-मन हतप्रभ है। उसे कोई विकल्प नहीं सूझ रहा है। जहाँ विकल्प नहीं होता वहाँ संकल्प से काम लिया जाता है। इसलिए भारत के जन-गण-मन को संकप्ल लेना चाहिए दिशाहीन, दृष्टिहीन तथा दायित्व विहीन नेताओं और राजनैतिक दलों को उनके अपराध की सज़ा देने का तथा सामाजिक समरसता का वातावरण बनाने का।