Friday, August 5, 2011

अवध किसान आन्दोलन के राजनीतिक और आर्थिक सन्दर्भ


      
ओम प्रकाश तिवारी
4 अगस्त,। 1856 में अवध पर ब्रिटिस हुकूमत स्थापित हो जाने के बाद किसानो के बेइंतहा शोषण की शुरूआत होती है। शोषण करने वाले थे ताल्लुकेदार और जमींदार जो अंग्रेजी शासन की पैदाइस थे। विदेशी हुकूमत का हित जमींदारों और तल्लुकेदारों के माध्यम से किसानो से अधिक से अधिक कर वसूलने में था। ब्रिटिस हुकूमत के खिलाफ अवध के किसान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही कसमसाने लगे थे, लेकिन किसानो का जमींदारों और ब्रिटिस हुकूमत के खिलाफ संगठित प्रतिरोध 20वीं सदी के दूसरे दशक में अधिक प्रभावी दिखा। हालांकि ब्रिटिस हुकूमत ने ताकत के दम पर किसानो के इस संगठित प्रतिरोध को दबा दिया नेकिन इस प्रतिरोध ने जमींदारों और ब्रिटिस हुकूमत की चूलें हिलाकर रख दी।
गौरतलब है कि 1917 में पंडित मोतीलाल नेहरू, पंडित मदन मोहन मालवीय और गौरीशंकर मिश्र ने किसानो के हक में उत्तर प्रदेश किसान सभा का गठन किया था। उत्तर प्रदेश किसान सभा में अवध की सर्वाधिक भागीदारी थी। यह किसान सभा किसानो के हक में ब्रिटिस हुकूमत के सामने मांगे रखती थी और दबाव डालकर वाजिब मांगें मंगवाती थी। लेकिन 1921 में गांधीजी के नेतृत्व में शुरू किए गए खिलाफत आंदोलन के सवाल पर उत्तर प्रदेश किसान सभा में तीखे मतभेद उभरने लगे और परिणाम स्वरूप अवध के किसान नेताओं, जिसमे खासतौर से गौरीशंकर मिश्र, माताबदल पांडेय, झिंगुरी सिंह आदि शामिल थे, ने उत्तर प्रदेश किसान सभा से नाता तोडकर अवध किसान सभा का गठन कर लिया। और एक महीने के भीतर ही अवध की उत्तर प्रदेश किसान सभा की सभी इकाइयों का अवध किसान सभा में विलय हो गया। इन नेताओं ने प्रतापगढ की पटृी तहसील के रूर गांव को नवगठित किसान सभा का मुख्यालय बनाया और यहीं पर एक किसान कांउसिल का भी गठन किया। अवध किसान सभा के निसाने पर मूलतः जमींदार और ताल्लुकेदार थे।
अवध किसान सभा के झंडे के नीचे किसान अंगडाइयां ले रहे थे कि इसी समय किसानो को बाबा रामचन्द नामक एक अदभुत संगठनकर्ता मिल गया। बाबा रामचन्द फिजी में बंधुआ मजदूर नेता रह चुके थे और उनमें गजब की संगठन क्षमता थी। बाबा रामचन्द के नेतृत्व में किसानो का आन्दोलन शीघ्र ही अवध की सीमाओं के बाहर तक फैल गया। आन्दोलन के विस्तार के साथ ही किसानो को एक शिक्षित शहरी नेतृत्व की आवश्यकता महसूस होने लगी, जिसे बाबा रामचन्द ने जवाहर लाल नेहरू के रूप में तलास लिया। हालांकि बाबा रामचन्द अपनी इस भूल पर जिन्दगी भर पछताते रहे। बाबा की यह भूल किसान आन्दोलन के लिए घातक सिद्व हुई। शहरी कांग्रेसी नेताओं ने किसान आन्दोलन का उपयोग अपने हितों में किया। इसलिए यह आन्दोलन कई विशेषताओं के बावजूद अपनी मंजिल तक नही पहुंच सका।
अवध किसान आन्दोलन पर अन्तर्राष्टीय घटनाओं का भी बखूबी प्रभाव वडा था। अवध में जिस समय किसान अंगडाई ले रहे थे उसी समय रूस में बोल्सेविक क्रांति हुई तथा रूस पर जापान की विजय हुई थी। इसीलिए ब्रिटिस हुकूमत आल्दोलनकारी किसानो के लिए बोल्सेविक, लुटरे और डांकू जैसे शब्दों का प्रयोग करती थी। द्वितीय विश्वयुद्व के छंटनीशुदा सैनिकों ने भी किसान आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। अवध किसान आन्दोलन में देहाती बुद्विजीवियों, जिसमें बाबा, साधु और फकीर आदि आते थे, ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। किसान आन्दोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी अवध किसान आन्दोलन की महत्वपूर्ण विशेषता थी। आगे चलकर महिलाओं की संगठित शक्ति का प्रतिरूप अखिल भारतीय किसानिन सभा के रूप में सामने आई। अखिल भारतीय किसानिन सभा शायद भारत में आम महिलाओं का पहला संगठन था।
कहा जाता है कि सर्वहारा वर्ग किसानो के संघर्ष में किसानो का स्वाभाविक सहयोगी होता है। लेकिन उस समय अवध में सर्वहारा वर्ग ढंूढने पर भी नही मिलते। दर-असल अवध का समाज खेतिहर मजदूरों का था, जिनपर हमेशा बेदखली की तलवार लटकी रहती थी। वास्तव में अवध में किसान थे ही नही। जिन्हे कुछ इतिहासकार किसान कहते थे वह तो खेतिहर मजदूर थे। अवध का समाज यूरोप के समाज से भिन्न था। इस ओर पश्चिमी इतिहासकार ध्यान नही देते।
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Monday, April 11, 2011

हमार परिचय



   हमार नाम ओम प्रकाश तिवारी अहै। हमार जनम उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ जिला के गांव उमरपुर घाटमपुर मे भा रहा।हमार परिवार गरीबी रेखा से थोरि के उपर अउर मध्यम तबका से थोरि के नीचे के रहा।मतलब कि खात-पियत परिवार रहा। परिवार काफी बडा रहा। हमार पिताजी फौज मे रहेन। हम दुइ भाई अउर एक बहिन अही। 
   छोटी गोल से पंचवे दर्जा तक के पढाइ गांव से करीब एक मील दूर प्राइमरी पाठशाला भदोंहीं में भइ।छठयें से अठयें तक आदर्श जूनियर हाईस्कूल राजगढ मे पढे। हाई स्कूल बीएन सिंह उच्चतर माध्यमिक विद्यालय भदोंहीं प्रतापगढ से केहे। इन्टर केपी हिन्दू इन्टर कालेज प्रतापगढ से पास केहे। ओकरे बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए अउर एमए पास केहे। बीए मे हमार विआह होइगा। इलाहाबाद में छात्र राजनीति के चस्का लागि गां। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव लडे अउर हारि गये। ओकरे पहिले मण्डल आयोग के सिफारिस लागू करै के विरोध में आन्दोलन शामिल भये अउर जेल गये। इहीं बीच एक बिटिया अउर एक बेटवा पैदा भा। अब हमरे उपर जिम्मेदारी जियादा बढि गइ। साहित्य में पहिलेन से मन रमत रहा। छात्रसंघ भवन मे अक्सर कवि सम्मेलन अउर काव्य गोष्ठी होत रही। धीरे-धीरे ओहमा हमहूं शामिल होइ लागे। अब राजनीति छोडि के मन साहित्य साधना अउर सिविल सेवा परीक्षा के तैयारी मे लगाये। उत्तर प्रदेश पीसीएस प्रारम्भिक परीक्षा तीन बार पास केहे। मुख्च परीक्षा मे फेल होइ गये। ओकरे बाद मन घर-परिवार मे रमइ लाग। एकरे अंलांवा पइसा-कउडी के दिक्कत होइ लाग। हमार दुइनउ लरिेकन स्कूल जाइ लागेन। यूंकि बीएड केहे रहे यंह बिना मास्टर बनइ के कोशिश करइ लागे।सुखनन्दन प्रसाद पाण्डेय सार्वजनिक इण्टर कालेज विहारगंज प्रतापगढ मे एक साल तक पढउबउ करे।इही के संघे प़त्रकारिता शुरु करे अउर हिन्दी दैनिक जनमोर्चा के प्रतापगढ संवाददाता बने। पइसा बहुत कम मिलत रहा।यह बिना मास्टरी छोडि देहे। एक साल तक घरे बइठा साहित्य साधना मे रत रहे। लेकिन घरउ मे मन नाही लागत रहा। एक दिन बिना बताये घरे से लखनउ भागि आये।
   लखनउ मे एक हप्ता तक भटकत रहे। एक दिन काफीहाउस हजरतगंज मे बइठा रहे। उहीं सययद असरार नाम के एक सज्जन मिल गयेन। आपस मे परिचय भा। असरार साहेब इलाहाबाद के हंडिया तहसील के निकलेन। ओनहू इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे पढे रहेन। पहिलेन मुलाकात मे दुइनउ जने मे दोस्ती होइ गइ। दुइ बार काफी पिया गा अउर ढेर देर तक विश्ववि़द्यालय के बारे मे चर्चा होत रही। असरार साहेब उत्तर प्रदेश सूचना विभाग मे उप निदेशक रहेन। दुसरे दिन वो हमका अपने आफिस मे बोलायेन अउर बतायेन कि लखनउ से हिन्दुस्तानी जुबान मे अपना अखबार नाम से एक अखबार निकलइ वाला बा। अमीनाबाद मे ओकर आफिस खुला बा। यूएनआई वाले खुर्शीद कामिल किदवई साहेब ओकर  सम्पादक अहंइ। आजइ जाइ के उनसे मिलि ल्या। संझा के करीब छः बजे अमीनाबाद अपना अखबार के दप्तर गये। संजोग से किदवइ साहेब अपने केबिन मे बइठा मिलि गयेन। उनसे मिलइ बरे पर्ची लगाये। किदवई साहेब तुरन्तइ हमका बोलवाइ लेहेन। थोडी देर उनसे बातचीत भइ। शायद हमार किस्मत अच्छी रही। किदवई साहेब सन्तुष्ट होइ गयेन। कहेन कि ठीक अहइ कल से आइ के काम करा। बस दुसरे दिन से अपना अखबार मे काम करइ लागे। अपना अखाबार मे काम करे से उर्दू शब्दन के ज्ञान खूब होइगा। उर्दू के ज्ञान बढा तउ ओसे हमार हिन्दी अउर मजबूत होइ गइ। अब जब हिन्दी लिखी तउ ओहमा उर्दू के तडका मारइ देइ। अब सीनियर लेखक अउर पत्रकार हमरे लेख के बखान करइ लाागेन। अपना अखबार मे काम करत कुछइ दिन भा रहा कि एक दिन काफी हाउस मे रवि सक्सेना नाम के एक सज्जन मिलि गयेन। वंह समय वो हिन्दी साप्ताहिक दि संडे पोस्ट मे लखनउ संवाददाता के पद पे काम करत रहेन। सक्सेना जी हमका काफी पियायेन अउर काफी देर तक दुइनउ जने बतियाये। चलत-चलत सक्सेना जी हमसे कहेन कि हप्ता मे दुइ-तीन स्टोरी संडे पोस्ट बरे लिखि देवा करा। हम तोहका कुछ मेहनताना देवाइ देब। शायद सक्सेना जी जानि गयेन कि हम अभाव मे जिअत अही। दुसरे दिन फिर काफीहाउस मे सक्सेना जी से मुलाकात भइ। सक्सेना जी हमका लिआइके इलाहाबाद बैंक के कैन्टीन मे गयेन। हुंआ दुइनउ जने पूडी-सब्जी खाये अउर चाय पिये। कुछ देर बातचीत केहे के बाद सक्सेना जी हमका लिआइ के बैंक गयेन अउर एक हजार रुपिया निकाल के हमका दइ देहेन। कहेन कि एका रक्खा अउर मन लगाइ के पत्रकारिता करा। कउनउ दिक्कत होये तउ हमसे जरुर बताया। संकोच जिन केहा। अब हमका दुइ अखबार से पइसा मिलइ लाग। एसे अभाव काफी हद तक दूर होइगा अउर कुछ पइसा बचाइ के हम घरे भेजब शुरु कइ देहे। यंह तरंह से धीरे-धीरे हम लखनउ मे जमि गये अउर लालकुआं मे एक हजार रुपिया महीना के कमरा किराये पे लइके रहइ लागे।
   तुलसी बाबा लिखे अहैं कि सब दिन होइ न एक समाना। अपना अखबार के नौकरी छूटि गइ अउर संडे पोस्ट से पइसा मिलब बन्द होइगा। एक बार फिर अभाव मे आइ गये। ऐसेन मोहताजी जिन्दगी मे कबहुं नाही महसूस करे रहे। एक दिन हिन्दी मासिक रुरल इंडिया के सम्पादक जितेन्द्र पाण्डेय हमरे लगे आयेन। ओ हमका पहिले से जानत रहेन।रुरल इंडिया मे काम करइ के आग्रह करेन। बेकारी अउर अभाव से परेशान हामी भरि देहे। हां कहतइ मान पाण्डेय जी कुछ रुपिया हमका एडवांस देहेन। रुरल इण्डिया मे काम करत महीनउ भर नाही बीता कि दैनिक युनाइटेड भारत मे वरिष्ट संवाददाता के रुप मे काम मिलिगा। अब जिन्दगी के गाडी फिर पटरी पे लउटि आइ। तीन साल बाद फिर रुरल इंडिया अउर युनाइटेड भारत से नौकरी छूटि गइ। करीब दुइ महीना बाद समाचार एजेंसी उत्तर प्रदेश समाचार सेवा मे संवाददाता के रुप मे काम करइ लागे यंह तंरह करीब तीन साल बिताइ देहे। खर्चा पूरा करइ बरे एजेन्सी के संघे स्वतन्त्र रुप से कउ जंगह लिखे। मौजूदा समय मे देनिक प्रभात मे करत अही। इंही तरीके से लहटम-पहटम जिन्दगी के गाडी चलत बा।

Tuesday, May 18, 2010

जाति आधारित जनगणना से 1930 जैसा अलगावादी महौल क़ायम होगा

भारत में वर्ष 2011 की जनगणना की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। प्रक्रिया प्रारम्भ होने के पूर्व ही कुछ जनाधार विहीन गिरोहनुमा राजनैतिक दलों और उनके सरदारों ने जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी है। मानो उनका सब कुछ लुट-पिट रहा हो। जाति आधारित जनगणना के समर्थकों की राय में इससे पिछड़ तथा अतिपिछड़ी जातियों की पुख़्ता जानकारी मिलने के साथ ही इन जातियों के विकास के लिए योजनायें बनाने में सहूलियतें मिलेंगी। इसके अलावा इन सरदारों और गिरोहों के पास जाति आधारित जनगणना के पक्ष में शायद कोई तर्क नहीं हैं। अगर इस तरह के गैर ज़िम्मेदार राजनैतिक दलों और उनके सरदारों के तर्कों को मानते हुए जनगणना कराई जाती है तो देश में 1930 के दशक जैसी जातिवादी, साम्प्रदायिक तथा अलगावादी महौल बनना तय है। गौरतलब हो कि ब्रिटिश हुकूमत में 1931 में जाति एवं सम्प्रदाय आधारित जनगणना करायी थी। इस जनगणना के बाद ही देश में साम्प्रदायिक एवं जातीय महौल बनना शुरू हुआ और अलगावाद को बढ़ावा मिलने लगा। इसी जनगणना के साथ ही अलग पाकिस्तान की मांग शुरू हुई और आज़ादी  के साथ ही इसकी दुखद परिणति भी हुई।
सपा, बसपा और राजद जैसे दलों और मुलायम, मायावती तथा लालू  जैसे दिशाहीन, दृष्टिहीन व दायित्व विहीन नेता 1930 के दशक जैसे हालात देश में पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल ब्रिटिश हुकूमत आज़ादी के आन्दोलन की धार को कुन्द करने तथा जातीय एव ंसाम्प्रदायिक अलगाव को पुख़्ता करने की नीयत से जाति आधारित जनगणना करायी थी। आज़ादी के बाद अब तक 6 बार जनगणना हो चुकी है। लेकिन जातीय आधार पर जनगणना की मांग कभी नहीं हुई। मण्डल आयोग की सिफारिशों के तहत जब पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई तो 1931 की जनगणना को ही आधार बनाया गया। मुलायम लालू और मायावती जैसे नेता और उनके दल मण्डल की अंधड़ में ही पल कर सत्ता का स्वाद चखे हैं। चूंकि अब दो दशकों बाद जब मण्डल की काली लौ बुझने के पहले टिमटिमा रही है, तो यही दल और नेता काली लौ को बचाने के लिए गीधड़ गुहार कर रहे हैं।
इन हालातों में देश के बुद्धजीवियों, साहित्यकारों, धर्मगुरूओं तथा अन्य ज़िम्मेदार लोगों को सामाजिक समरसता के लिए जाति आधारित जनगणना के विरोध में माहौल क़ायम करने की ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए। फिलवक़्त इस तरह का प्रयास कहीं दिख नहीं रहा है। देश का जन-गण-मन हतप्रभ है। उसे कोई विकल्प नहीं सूझ रहा है। जहाँ विकल्प नहीं होता वहाँ संकल्प से काम लिया जाता है। इसलिए भारत के जन-गण-मन को संकप्ल लेना चाहिए दिशाहीन, दृष्टिहीन तथा दायित्व विहीन नेताओं और राजनैतिक दलों को उनके अपराध की सज़ा देने का तथा सामाजिक समरसता का वातावरण बनाने का।

Tuesday, October 27, 2009

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